केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति से मै पिछले ५-६ सालो से सहमत नहीं रहा हूँ। ।रुपये की गिरती कीमत का लाभ भी हमारे देश को नहीं मिलने वाला क्यूंकि महंगी मौद्रिक नीति के कारण लोगो ने अपनी निवेश योजनाएँ पहले से स्थगित कर रखी है.…. सीमित उत्पादन निर्यात को प्रोत्साहित नहीं कर सकता।
शुक्रवार, 23 अगस्त 2013
शुक्रवार, 14 जून 2013
INTERNET AND PRIVACY
अमेरिका ने पुरे विश्व के नागरिको के निजता के अधिकार का उल्लंघन किया है.... लोकतंत्र के निर्यात का ढिंढोरा पीटने वाला अमेरिका राष्ट्र के नाम पर किसी भी कार्यवाही को उचित बता सकता है… हिटलर और मुसोलनी भी यही करते थे ..संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् में अमेरिका के खिलाफ प्रस्ताव लाया जाना चाहिए ....
बुधवार, 3 अप्रैल 2013
UPSC
UPSC ने अपने आमूलचूल बदलावों को वापस ले लिया .... नुकसान फिर से हिंदी माध्यम वालो का हुआ .... २-२. ५ हजार कापियां फिर से चेक नहो होंगी .... क्यूंकि इतने तो अंग्रेजी में फिर फेल हो जायेंगे ... अंग्रेजी के नंबर जुड़ने से छात्रों को नुकसान कम था . पहले भी GS के दितीय पेपर में छात्र १ ० ० no तक के प्रश्न छोड़ आते थे .इसका विरोध छात्रों ने कम किया राजनीतिज्ञों ने ज्यादा . खासकर हिंदी के न्यूज़ चेनलो ने ज्यादा .
मंगलवार, 3 जुलाई 2012
naxalvaad
छत्तीसगढ़
में रात के अँधेरे में आदिवासिओ को मारकर उन्हें नक्सली बना दिया जाता है
... ऊपर से कह रहे की अँधेरे में एरिया वेपन का प्रयोग नहीं किया .. क्या
कम है...? तर्क देते हैं जब सुरक्षा बल मारे जाते हैं तब मानवाधिकारवादी
कुछ नहीं बोलते ....भारत के मूल वासी ये आदिवासी ही हैं ..... ये हमें समझना होगा ....संसाधनों
पर पहला हक़ उनका है ... क्यूंकि अभी भी वह प्रकृति के साथ जुड़े हुए हैं
... उन क्षेत्रो को प्रशासनिक नियंत्रण में लेना चाहिए ..न की उन्हें ख़त्म
करने को कोशिश करनी चाहिए... वे उस प्रोपगंडा( तथाकथित माओवादी ) का साथ
तब छोड़ेगे जब उन्हें लगेगा हम ( भारत सरकार) ज्यादा सही हैं .
बुधवार, 27 जून 2012
बशीर के ऐसे कई शेर हैं, जो लोगों की जुबान पर हैं। इनमें तजुर्बे से
निकली नसीहत भी है, एक आत्मीय संवाद भी। कुछ शेर यहाँ पेश किए दे रहा हूँ:
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यों कोई बेवफ़ा नहीं होता
बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरया समन्दर से मिला, दरया नहीं रहता
हम तो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
हम जहाँ से जाएँगे, वो रास्ता हो जाएगा
मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो
बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है
सब कुछ खाक हुआ है लेकिन चेहरा क्या नूरानी है
पत्थर नीचे बैठ गया है, ऊपर बहता पानी है
यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यों कोई बेवफ़ा नहीं होता
बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरया समन्दर से मिला, दरया नहीं रहता
हम तो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
हम जहाँ से जाएँगे, वो रास्ता हो जाएगा
मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो
बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है
सब कुछ खाक हुआ है लेकिन चेहरा क्या नूरानी है
पत्थर नीचे बैठ गया है, ऊपर बहता पानी है
यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे
शनिवार, 17 सितंबर 2011
हिंदी दिवस ....
हिंदी दिवस फिर बीत गया , चर्चा के केंद्रबिंदु बाज़ार ,सिनेमा,साहित्य,आकाशवाणी ,दूरदर्शन की हिंदी; राजभाषा -राष्ट्रभाषा , क्षेत्रीय भाषाएँ और हिंदी तथा कंप्यूटर में हिंदी जैसे विषय रहे । निष्कर्ष यही निकला हिंदी का विकास हो रहा है पर वह सम्मान हिंदी नहीं हासिल कर सकी जो इसे मिलना चाहिए था ।
क्या कारण है की बहुभाषी इस देश की अपनी कोई राष्ट्रभाषा तय न हो सकी जो की निर्विवाद तौर पर हिंदी ही बन सकती है।
विश्व की अन्य प्रमुख भाषाओं से तुलना करें तो हिंदी दौड़ में पिछड़ गयी लगती है । क्या आर्थिक वर्चस्व जिस भाषाई समूह का सबसे पहले स्थापित हुआ उसी की भाषा भी वर्चस्व स्थापित कर सकी । या फिर भारतीय शासक वर्ग ने हिंदी विरोध को देखते हुए संघ की भाषा के तौर इसे स्थान नहीं दिलाया या फिर उच्च वर्गीय भारतीय हीनता से ग्रस्त रहे हैं .जिससे उन्होंने अंग्रेजी के वर्चस्व को स्वीकार किया और अपनी भाषा को खुद अंग्रेजी की चेरी बना दिया । जो प्रयास हिंदी के विकास के लिए इन्हें करना चाहिए था नहीं किया।
क्या हमें अपनी भाषा में बोलकर,लिखकर,पढ़कर गर्व महशुस नहीं होता ? कही न कही ये सारे कारण सही जान पड़ते हैं।
भारतीय भाषाओ का दायरा फैलता और सिमटता जा रहा है.... देखने में यह कथन विरोधाभासपूर्ण लगता है पर सही है। सिनेमा और बाज़ार जहाँ भाषाओ का प्रसार कर रहे हैं वहीँ राजकाज की भाषा ,अकादमिक भाषा और उच्च माध्यम वर्ग के बीच (जो तेज़ी से बढ़ रहा है ) वार्तालाप की भाषा अंग्रेजी बनती जा रही है । यदपि यह पहले भी रहा है परन्तु तेज़ी इस दौर में दिखाई दे रही है ।
अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय जनसंपर्क की भाषा बन चुकी है तो क्या इसे राष्ट्रीय स्तर पर भी जनसंपर्क की भाषा बना दिया जाना चाहिए ?( जो बन चुकी है )। क्या हम जनसंपर्क ही हिन्दुस्तानी भाषा नहीं गढ़ सकते ? हिंदी के अलावा अन्य प्रमुख भारतीय भाषाएँ संस्कृत या फिर हिंदी से मेल खाती हैं। तो फिर इन भाषाई समूहों के लिए हिंदी विदेशी भाषा कैसे हो गयी और अंग्रेजी देशी ? अन्य भाषाओ का ज्ञान अच्छी बात है पर अंग्रेजी बोलने ,लिखने,पढने में गर्व की अनुभूति कही न कही हीनता का धोतक है (अपनी स्थिति को लेकर )।
जिसे हम हिंदी बेल्ट कहते हैं ,ने स्वेच्छा से अपनी क्षेत्रीय बोलियों , उपभाषाओ और भाषाओ का त्याग किया है और आपस में जनसंपर्क की भाषा के तौर पर खड़ी बोली हिंदी को चुना है .जो इन्हें एक करती है ॥ पर यह तबका हिंदी को वह स्थान नहीं दिला सकता जिसकी वह उत्तराधिकारी है .......
क्या कारण है की बहुभाषी इस देश की अपनी कोई राष्ट्रभाषा तय न हो सकी जो की निर्विवाद तौर पर हिंदी ही बन सकती है।
विश्व की अन्य प्रमुख भाषाओं से तुलना करें तो हिंदी दौड़ में पिछड़ गयी लगती है । क्या आर्थिक वर्चस्व जिस भाषाई समूह का सबसे पहले स्थापित हुआ उसी की भाषा भी वर्चस्व स्थापित कर सकी । या फिर भारतीय शासक वर्ग ने हिंदी विरोध को देखते हुए संघ की भाषा के तौर इसे स्थान नहीं दिलाया या फिर उच्च वर्गीय भारतीय हीनता से ग्रस्त रहे हैं .जिससे उन्होंने अंग्रेजी के वर्चस्व को स्वीकार किया और अपनी भाषा को खुद अंग्रेजी की चेरी बना दिया । जो प्रयास हिंदी के विकास के लिए इन्हें करना चाहिए था नहीं किया।
क्या हमें अपनी भाषा में बोलकर,लिखकर,पढ़कर गर्व महशुस नहीं होता ? कही न कही ये सारे कारण सही जान पड़ते हैं।
भारतीय भाषाओ का दायरा फैलता और सिमटता जा रहा है.... देखने में यह कथन विरोधाभासपूर्ण लगता है पर सही है। सिनेमा और बाज़ार जहाँ भाषाओ का प्रसार कर रहे हैं वहीँ राजकाज की भाषा ,अकादमिक भाषा और उच्च माध्यम वर्ग के बीच (जो तेज़ी से बढ़ रहा है ) वार्तालाप की भाषा अंग्रेजी बनती जा रही है । यदपि यह पहले भी रहा है परन्तु तेज़ी इस दौर में दिखाई दे रही है ।
अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय जनसंपर्क की भाषा बन चुकी है तो क्या इसे राष्ट्रीय स्तर पर भी जनसंपर्क की भाषा बना दिया जाना चाहिए ?( जो बन चुकी है )। क्या हम जनसंपर्क ही हिन्दुस्तानी भाषा नहीं गढ़ सकते ? हिंदी के अलावा अन्य प्रमुख भारतीय भाषाएँ संस्कृत या फिर हिंदी से मेल खाती हैं। तो फिर इन भाषाई समूहों के लिए हिंदी विदेशी भाषा कैसे हो गयी और अंग्रेजी देशी ? अन्य भाषाओ का ज्ञान अच्छी बात है पर अंग्रेजी बोलने ,लिखने,पढने में गर्व की अनुभूति कही न कही हीनता का धोतक है (अपनी स्थिति को लेकर )।
जिसे हम हिंदी बेल्ट कहते हैं ,ने स्वेच्छा से अपनी क्षेत्रीय बोलियों , उपभाषाओ और भाषाओ का त्याग किया है और आपस में जनसंपर्क की भाषा के तौर पर खड़ी बोली हिंदी को चुना है .जो इन्हें एक करती है ॥ पर यह तबका हिंदी को वह स्थान नहीं दिला सकता जिसकी वह उत्तराधिकारी है .......
गुरुवार, 28 जुलाई 2011
मल्टी ब्रांड रिटेल
मल्टी ब्रांड रिटेल में FDI का स्वागत किया जाना चाहिए । मुनाफाखोरी पर लगाम लगेगी और हम भारतीय बेहतर सेवाओ का फायदा उठाएंगे . जहाँ तक आशंकाए हैं वो १० साल पहले डराती थी .
आज जो ऐसी बाते करते हैं उन्हें वर्तमान में जीना सीखना होगा .
सदस्यता लें
संदेश (Atom)